✍ कीर्ति वर्रा ???? संडे स्पेशल
मेरी कलम के शब्द आज भी भीड़ में इंसान को ढूंढते हैं लेकिन कहीं गुम है इंसान बिखरते हुए इस भीड़ में भी अकेला रहते हुए जोकि अकेलापन महसूस करता है ऐसी कहीं बातें कहीं लोगों के मुंह से सुन चुके और कई किताबों में पढ़ चुके होंगे लेकिन बदलते वक्त ने उस भीड़ को ही अलग-अलग कर दिया जिस भीड़ में आदमी अकेलापन महसूस करता था लेकिन फिर भी भीड़ का एहसास तो था लेकिन आज के इस दौर में तो बहुत सारी भीड़ एक मोबाइल के अंदर कैद हो गई है जैसे कि हाथों को हथकड़ी लगी हो और चाबी खो गई हो उस भीड़ के किसी कोने में ढूंढते हुए उंगलियां रुकने का नाम ही नहीं लेती है जैसे कि पूरी दुनिया ही कैद हो गई हो एक मोबाइल में जन्मदिन की बधाई से लेकर तो शोक पत्रिका तक रिश्तेदारी निभाने से तो लड़ाई तक मैं यह भी नहीं कहता कि शहर में तरक्की नहीं हुई है क्योंकि पूर्व में पोस्टकार्ड लिखने के बाद कुछ दिनों के बाद परिवार तक पहुंच पाते थे हाल-चाल जानते हुए और फिर इंतजार भी रहता था पोस्टकार्ड के जवाब का*आज के दौर में कुछ ही सेकंड में हाल-चाल पूछ लिए जाते हैं और कहा जाता है कि रोज फोन आते हैं पूर्व में प्यार था और इंतजार भी*पुराने दौर के खेल बच्चों के लिए बड़े ही अनोखे होते हैं जो अब कहीं पर देखने को नहीं मिलते और ना ही उनके कोई दोस्त क्योंकि आज के दौर में हर बच्चे के पास मोबाइल और लाखों दोस्त पुराने दौर में भीड़ में कोई तन्हा था और आज के दौर ने भीड़ को मोबाइल में कैद कर लिया सोचता हूं आखिर कैसे पकड़ेगा माता-पिता अपने बच्चों की चोरी जो हर दिन करके डिलीट कर दिया जाता है यह मोबाइल है कोई पुराने जमाने का खत नहीं*
शब्द वही जो दिल को छू जाए और हर एक सोचने पर मजबूर हो जाए कि शब्दों का अर्थ क्या होगा पढ़ने के बाद